ائے عزمِ دیں عزمِ دروں آخر کروں تو کیا کروں؟
کون اپنا ہے کہاں ہے کس کو میں آواز دوں؟
ऐ अज़्मे दीं अज़्मे दरूँ आख़िर करूँ तो क्या करूँ?
कौन अपना है कहाँ है किसको मैं आवाज़ दूँ?
ائے کہ نَحۡنُ اَقۡرَبُ، ائے باعثِ صبر و سکوں۔
کب تلک مثلِ کہف میں منتظر سوتا رہوں؟
بڑھ گیا ہے حد سے بھی آگے کو اب میرا جنوں!
تو ہی اب بتلا دے کہ میں اب کروں تو کیا کروں؟
ائے عزمِ دیں عزمِ دروں آخر کروں تو کیا کروں؟
کون اپنا ہے کہاں ہے کس کو میں آواز دوں؟
ऐ कि नहनो अक़रबो ऐ बाएसे सब्र ओ सुकूँ!
कब तलक मिस्ले कहफ़ मैं मुन्तज़िर सोता रहूँ?
बढ़ गया है हद से भी आगे को अब मेरा जुनूँ,
तू ही अब बतला दे कि मैं अब करूँ तो क्या करूँ?
ऐ अज़्मे दीं अज़्मे दरूँ आख़िर करूँ तो क्या करूँ?
कौन अपना है कहाँ है किस को मैं आवाज़ दूँ?
یہ دھڑکتی قلب و در اعضائے رگ ریشوں کا جال۔
جسم و جاں کی عارضی پتلے میں رنج و غم ملال۔
پیکرِ خاکی سراپا نفس و فطرت انفعال،
سارا عالم ہے مسخّر، کل جہاں زیرِ نگوں۔
ائے عزمِ دیں عزمِ دروں آخر کروں تو کیا کروں؟
کون اپنا ہے کہاں ہے کس کو میں آواز دوں؟
ये धड़कती क़ल्ब ओ दर ऐज़ा ए रग रेशों का जाल!
जिस्म ओ जाँ कि आरज़ी पुतले में रंज ओ ग़म मलाल!
पैकर ए ख़ाकी सरापा नफ़्स ओ फ़ितरत इनफ़आल,
सारा आलम है मुसख़्ख़र, कुल जहाँ ज़ेर ए नगूँ!
ऐ अज़्मे दीं अज़्मे दरूँ आख़िर करूँ तो क्या करूँ?
कौन अपना है कहाँ है किस को मैं आवाज़ दूँ?
وقت کو ہے وقت کے آنے کا ہر دم انتظار۔
وقت ہی کے دائرے میں قید ہے لیل و نہار۔
منزل و مقصود کا ہے وقت پر ہی انحصار،
وقت کی مربوط زنجیروں کی کڑیاں توڑ دوں؟
ائے عزمِ دیں عزمِ دروں آخر کروں تو کیا کروں؟
کون اپنا ہے کہاں ہے کس کو میں آواز دوں؟
वक़्त को है वक़्त के आने का हर दम इंतेज़ार!
वक़्त ही के दायरे में क़ैद है लैल ओ नेहार!
मंज़िल ओ मक़सूद का है वक़्त पर ही इन्हेसार,
वक़्त की मरबूत ज़ंजीरों की कड़ियां तोड़ दूं?
ऐ अज़्मे दीं अज़्मे दरूँ आख़िर करूँ तो क्या करूँ?
कौन अपना है कहाँ है किस को मैं आवाज़ दूँ?
دی فضیلت خاک کو بخشی ہے تونے برتری۔
تو کہ ائے گنجِ خفی معبود نارِ آزری۔
بھیج پھر موسیٰؑ کو لیکر دست میں کاسہ چھری،
چاہیئے تجھکو اگر اک آدمی کا لحم و خوں!
ائے عزمِ دیں عزمِ دروں آخر کروں تو کیا کروں؟
کون اپنا ہے کہاں ہے کس کو میں آواز دوں؟
दी फज़ीलत ख़ाक को बख़्सी है तूने बरतरी!
तू कि ऐ गंज ए ख़फ़ी माबूद नारे आज़री!
भेज फिर मूसा को लेकर दस्त में कासा छुरी,
चाहिए तुझको अगर एक आदमी का लहम ओ ख़ूँ!
ऐ अज़्मे दीं अज़्मे दरूँ आख़िर करूँ तो क्या करूँ?
कौन अपना है कहाँ है किस को मैं आवाज़ दूँ?
لات و عزیٰ، سنگ اسوَد ہو نہیں سکتے خدا۔
ذبح اسماعیلؑ سے بنیاد کعبے کا رکھا۔
آدمی وہ بت ہے کہ جس بت میں ہے وہ خود چھپا،
روبروئی کر عطا کہ روبرو تیرے جھکوں۔
ائے عزمِ دیں عزمِ دروں آخر کروں تو کیا کروں؟
کون اپنا ہے کہاں ہے کس کو میں آواز دوں؟
लात ओ उज़्ज़ा, संगे असवद हो नहीं सकते ख़ुदा!
ज़िबह इस्माईल से बुनियाद कआबे का रखा!
आदमी वो बुत है कि जिस बुत में है वो ख़ुद छुपा,
रूबरूई कर अता कि रूबरू तेरे झुकूँ!
ऐ अज़्मे दीं अज़्मे दरूँ आख़िर करूँ तो क्या करूँ?
कौन अपना है कहाँ है किस को मैं आवाज़ दूँ?
مثلِ موسیٰؑ میں گیا اک روز کوہِ طور پر۔
اپنے سینے کے ہی اندر سِرّ و اخفیٰ سے گزر۔
عالمِ ملکوت سے آئی نِدا فوق البشر،
سر نہیں آدم کا ہوتا ہے کہیں بھی سرنگوں۔
ائے عزمِ دیں عزمِ دروں آخر کروں تو کیا کروں؟
کون اپنا ہے کہاں ہے کس کو میں آواز دوں؟
मिस्ल ए मूसा मैं गया एक रोज़ कोहे तूर पर!
अपने सीने के ही अंदर सिर्रो अख़्फ़ा से गुज़र गया!
आलम ए मलकूत से आई निदा फौक़ उल बशर,
सर नहीं आदम का होता है कहीं भी सर नगूँ!
ऐ अज़्मे दीं अज़्मे दरूँ आख़िर करूँ तो क्या करूँ?
कौन अपना है कहाँ है किस को मैं आवाज़ दूँ?
واقعاتِ کربلا ہے صابروں کا مرتبہ۔
صبر کا ہوتا نہیں ہے گرچہ کوئی انتہا۔
ہاں مگر لازم ہے کرنی اتّباعِ عنہماؑ،
دیکھ فرماتا ہے رب فَتَوَکَّلۡ الۡمُتَوَکِّلِوُنَ۔
ائے عزمِ دیں عزمِ دروں آخر کروں تو کیا کروں؟
کون اپنا ہے کہاں ہے کس کو میں آواز دوں؟
वाक़िआत ए कर्बला है साबिरों का मर्तबा!
सब्र का होता नहीं है गर्चे कोई इन्तेहा!
हाँ मगर लाज़िम है करनी इतब्बा ए अन्हुमा!
देख फ़रमाता है रब फतवक्कुल अल मुतवक्किलून!
ऐ अज़्मे दीं अज़्मे दरूँ आख़िर करूँ तो क्या करूँ??
कौन अपना है कहाँ है किस को मैं आवाज़ दूँ??
کلام:- حضرت محمد افضل حسین میم ھندی اجلؔ رحمتہ الله علیہ۔
پیشکش :- مرکزِ افضلیہ ایجوکیشن ٹرسٹ
कलाम:- हज़रत मोहम्मद अफ़ज़ल हुसैन मीमहिन्दी अजल रहमतुल्लाह अलैेह।
पेशकश :- मरकज़ ए अफ़ज़लिया ऐजुकेशन ट्रस्ट